सीने में बंद राज़ हूं और इक खुली क़िताब हूं।
मरू की शुष्क रेत हूं, और खेत जरखेज़ हूं,
क्छुए की धीमी चाल हूं, मन की गति से तेज़ हूं।
पहाड़ जैसे स्थिर हूं और समय की चलती चाल हूं,
अदभुत हूं मैं विलक्षण हूं, और मैं कमाल हूं।
यहां हूं मैं, वहां हूं मैं, मैं सर्विद्यमान हूं,
प्रकाश हूं, मैं ज्ञान हूं, मैं सर्वशक्तिमान हूं।
मैं लोभ, मोह, काम, क्रोध और मैं अहम भी हूं,
हर कण में भी मैं व्याप्त हूं, और मैं ही ब्रह्म भी हूं।
मैं एक हूं, अनेक हूं, विकर्ष हूं, आकृष हूं,
मैं एक पल से सूक्ष्म हूं और सहस्र वर्ष हूं।
मैं शून्य हूं, अनंत हूं, साकार, निराकार हूं,
मैं अवगुणों का मूल हूं और मैं ही निर्विकार हूं।
मैं तत्व में विलीन हूं, और आत्मसात गुम भी हूं,
मैं तुम में हूं मैं तुम ही हूं, मैं तुम में हूं मैं तुम ही हूं।